विनियोग
अस्यश्री अर्गला स्तोत्र मंत्रस्य विष्णुः ऋषि: अनुष्टुप्छन्द: श्री महालक्षीर्देवता मंत्रोदिता देव्योबीजं नवार्णो मंत्र शक्तिः श्री सप्तशती मंत्रस्तत्वं श्री जगदम्बाप्रीत्यर्थे सप्तशती पठां गत्वेन जपे विनियोग:।।
ध्यान
ॐ बन्धूक कुसुमाभासां पञ्चमुण्डाधिवासिनीं।
स्फुरच्चन्द्रकलारत्न मुकुटां मुण्डमालिनीं।।
त्रिनेत्रां रक्त वसनां पीनोन्नत घटस्तनीं।
पुस्तकं चाक्षमालां च वरं चाभयकं क्रमात्।।
दधतीं संस्मरेन्नित्यमुत्तराम्नायमानितां।
अथवा
या चण्डी मधुकैटभादि दैत्यदलनी या माहिषोन्मूलिनी,
या धूम्रेक्षन चण्डमुण्डमथनी या रक्त बीजाशनी।
शक्तिः शुम्भनिशुम्भदैत्यदलनी या सिद्धि दात्री परा,
सा देवी नव कोटि मूर्ति सहिता मां पातु विश्वेश्वरी।।
ॐ नमश्चण्डिकायै मार्कण्डेय उवाच
ॐ जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी । दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तुते॥
जय त्वं देवि चामुण्डे जय भूतार्तिहारिणि । जय सर्वगते देवि कालरात्रि नमोऽस्तु ते॥
मधुकैटभ विद्रा विविधातृवरदे नमः । रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥
महिषासुरनिर्णाशि भक्तानां सुखदे नमः। रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥
रक्तबीजवधे देवि चण्डमुण्ड विनाशिनि । रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥
शुम्भस्यैव निशुम्भस्य धूम्राक्षस्य च मर्दिनि । रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥
वन्दिताङघ्रियुगे देवि सर्वसौभाग्यदायिनि । रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥
अचिन्त्यरूपचरिते सर्वशत्रुविनाशिनि । रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥
नतेभ्यः सर्वदा भक्त्या चण्डिके दुरितापहे । रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥
स्तुवद्भ्यो भक्तिपूर्वं त्वां चण्डिके व्याधिनाशिनि । रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥
चण्डिके सततं ये त्वामर्चयन्तीह भक्तितः । रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥
देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि मे परमं सुखम् । रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥
विधेहि द्विषतां नाशं विधेहि बलमुच्चकैः । रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥
विधेहि देवि कल्याणं विधेहि परमां श्रियम् । रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥
सुरासुर शिरोरत्न निघृष्ट चरणेऽम्बिके । रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥
विद्यावन्तं यशस्वन्तं लक्ष्मीवन्तं जनं कुरु । रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥
प्रचण्डदैत्यदर्पघ्ने चण्डिके प्रणताय मे । रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥
चतुर्भुजे चतुर्वक्त्रसंस्तुते परमेश्वरि । रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥
कृष्णेन संस्तुते देवि शश्वद्भक्त्या सदाम्बिके । रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥
हिमाचल सुतानाथ संस्तुते परमेश्वरि । रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥
इन्द्राणी पति सद्भावपूजिते परमेश्वरि । रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥
देवि प्रचण्ड दोर्दण्ड दैत्य दर्प विनाशनि । रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥
देवि भक्तजनोद्दामदत्तानन्दोदयेऽम्बिके । रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥
भार्यां मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीम् । तारिणिं दुर्ग संसार सागरस्य कुलोद्भवाम ।
इदं स्तोत्रं पठित्वा तु महास्तोत्रं पठेन्नरः । सप्तशतीं समाराध्य वरमाप्नोति दुर्लभम् ॥
॥ इति देव्या अर्गलास्तोत्रं सम्पूर्णं ॥
[ RAVIKANT UPADHYAY ] [ PROFILE ] [ DISCLAIMER ] GANJBASODA | VIDISHA | MP | INDIA |
Keywords: argala, argalastotra, devi, durgasaptashati, jagdamba, mahatmayam, sanskrita,