गंजबासौदा न्यूज़ पोर्टल @ ऋषिकेश रमाकांत उपाध्याय/
{ ऋषिकेश के विद्वान पंडित देव उपाध्याय जी से जानिए देवप्रबोधिनी एकादशी का पूजन, विधान महत्व }
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देवप्रबोधिनी एकादशी को देव उठनी एकादशी और देवुत्थान एकादशी के नाम से भी जाना जाता है इस वर्ष देवप्रबोधिनी एकादशी स्मार्त मत के अनुयायियों के लिये रविवार 14 नवम्बर को और वैष्णव एवं निम्बार्क मत के अनुयायियों द्वारा 15 नवम्बर सोमवार के दिन मनाई जाएगी।
हिन्दू मान्यताओं के अनुसार इस दिन से विवाह, गृह प्रवेश तथा अन्य सभी प्रकार के मांगलिक कार्य आरंभ हो जाते हैं। माना जाता है कि भगवान श्रीविष्णु ने भाद्रपद मास की शुक्ल एकादशी को महापराक्रमी शंखासुर नामक राक्षस को लम्बे युद्ध के बाद समाप्त किया था और थकावट दूर करने के लिए क्षीरसागर में जाकर सो गए थे और चार मास पश्चात फिर जब वे उठे तो वह दिन देव उठनी एकादशी कहलाया। इस दिन भगवान श्रीविष्णु का सपत्नीक आह्वान कर विधि विधान से पूजन करना चाहिए। इस दिन उपवास करने का विशेष महत्व है और माना जाता है कि यदि इस एकादशी का व्रत कर लिया तो सभी एकादशियों के व्रत का फल मिल जाता है और व्यक्ति सुख तथा वैभव प्राप्त करता है और उसके पाप नष्ट हो जाते हैं।
पद्मपुराण के अनुसार इस दिन उपवास करने से सहस्त्र एकादशी व्रतों का फल प्राप्त होता है। जप, होम, दान सब अक्षय होता है। यह उपवास हजार अश्वमेध तथा सौ राजसूय यज्ञों का फल देनेवाला, ऐश्वर्य, सम्पत्ति, उत्तम बुद्धि, राज्य तथा सुख प्रदाता है। मेरु पर्वत के समान बड़े-बड़े पापों को नाश करनेवाला, पुत्र-पौत्र प्रदान करनेवाला है। इस दिन गुरु का पूजन करने से भगवान प्रसन्न होते हैं व भगवान विष्णु की कपूर से आरती करने पर अकाल मृत्यु नहीं होती।
देव उठनी एकादशी का महत्व
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कार्तिक शुक्ल एकादशी को देवोत्थनी एकादशी के नाम से भी जाना जाता है। इस दिन से विवाह, गृह प्रवेश तथा अन्य सभी प्रकार के मांगलिक कार्य आरंभ हो जाते हैं। एक पौराणिक कथा में उल्लेख मिलता है कि भगवान श्रीविष्णु ने भाद्रपद मास की शुक्ल एकादशी को महापराक्रमी शंखासुर नामक राक्षस को लम्बे युद्ध के बाद समाप्त किया था और थकावट दूर करने के लिए क्षीरसागर में जाकर सो गए थे और चार मास पश्चात फिर जब वे उठे तो वह दिन देवोत्थनी एकादशी कहलाया। इस दिन भगवान विष्णु का सपत्नीक आह्वान कर विधि विधान से पूजन करना चाहिए। इस दिन उपवास करने का विशेष महत्व है।
पूजा विधि
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इस दिन व्रत करने वाली महिलाएं प्रातः स्नानादि से निवृत्त होकर पूजा स्थल को साफ करें और आंगन में चौक बनाकर भगवान श्रीविष्णु के चरणों को कलात्मक रूप से अंकित करें। दिन में चूंकि धूप होती है इसलिए भगवान के चरणों को ढंक दें। रात्रि के समय घंटा और शंख बजाकर निम्न मंत्र से भगवान को जगाएँ-:
*‘उत्तिष्ठ गोविन्द त्यज निद्रां जगत्पतये।*
*त्वयि सुप्ते जगन्नाथ जगत् सुप्तं भवेदिदम्॥’*
*‘उत्थिते चेष्टते सर्वमुत्तिष्ठोत्तिष्ठ माधव।*
*गतामेघा वियच्चैव निर्मलं निर्मलादिशः॥’*
*‘शारदानि च पुष्पाणि गृहाण मम केशव।’*
*‘उत्तिष्ठ गोविन्द त्यज निद्रां जगत्पतये।*
इसके बाद भगवान को जल, दूध, पंचामृत शहद, दही, घी, शक्कर
हल्दी मिश्रित जल, तथा अष्ट गंध से स्नान कराएं इसके बाद नये वस्त्र अर्पित करें फिर पीले चंदन का तिलक लगाएँ, श्रीफल अर्पित करें, नैवेद्य के रूप में विष्णु जी को ईख, अनार, केला, सिंघाड़ा आदि अर्पित करने चाहिए। फिर कथा का श्रवण करने के बाद आरती करें और बंधु बांधवों के बीच प्रसाद वितरित करें।
प्रबोधिनी एकादशी व्रत वाले दिन ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद के विविध मंत्र भी पढ़े जाते हैं।
भगवान श्रीविष्णु को तुलसी अर्पित करें
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पुराणों में उल्लेख मिलता है कि स्वर्ग में भगवान श्रीविष्णु के साथ लक्ष्मीजी का जो महत्व है वही धरती पर तुलसी का है। इसी के चलते भगवान को जो व्यक्ति तुलसी अर्पित करता है उससे वह अति प्रसन्न होते हैं। बद्रीनाथ धाम में तो यात्रा मौसम के दौरान श्रद्धालुओं द्वारा तुलसी की करीब दस हजार मालाएं रोज चढ़ाई जाती हैं। इस दिन श्रद्धालुओं को चाहिए कि जिस गमले में तुलसी का पौधा लगा है उसे गेरु आदि से सजाकर उसके चारों ओर मंडप बनाकर उसके ऊपर सुहाग की प्रतीक चुनरी को ओढ़ा दें। इसके अलावा गमले को भी साड़ी में लपेट दें और उसका श्रृंगार करें। इसके बाद सिद्धिविनायक श्रीगणेश सहित सभी देवी−देवताओं और श्री शालिग्रामजी का विधिवत पूजन करें। एक नारियल दक्षिणा के साथ टीका के रूप में रखें और भगवान शालिग्राम की मूर्ति का सिंहासन हाथ में लेकर तुलसीजी की सात परिक्रमा कराएं। इसके बाद आरती करें।
व्रत का पारण
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एकादशी के व्रत को समाप्त करने को पारण कहते हैं। एकादशी व्रत के अगले दिन सूर्योदय के बाद पारण किया जाता है। एकादशी व्रत का पारण द्वादशी तिथि समाप्त होने से पहले करना जरूरी है लेकिन अगर द्वादशी तिथि सूर्योदय से पहले ही समाप्त हो गयी हो तो एकादशी व्रत का पारण सूर्योदय के बाद ही करना चाहिए।
एकादशी व्रत का पारण हरि वासर के दौरान भी नहीं करना चाहिए। जो श्रद्धालु व्रत कर रहे हैं उन्हें व्रत तोड़ने से पहले हरि वासर समाप्त होने की प्रतिक्षा करनी चाहिए। हरि वासर द्वादशी तिथि की पहली एक चौथाई अवधि है।
एकादशी तिथि आरंभ? 14 नवंबर प्रातः 05 बजकर 47 मिनट से।
एकादशी तिथि समाप्त? 15 नवंबर
प्रातः 06 बजकर 37 मिनट तक।
पारण (व्रत तोड़ने का) समय = 15, नवंबर को दिन 01:10 से 03:15 तक
विशेष
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कभी-कभी यह भी देखने में आता है कि एकादशी व्रत लगातार दो दिनों के लिए हो जाता है। जब ऐसी स्थिति आये तब गृहस्थ आश्रम से जुड़े लोगों को पहले दिन एकादशी व्रत करना चाहिए। संन्यासियों, विधवाओं और मोक्ष प्राप्ति के इच्छुक श्रद्धालुओं को दूजी एकादशी के दिन व्रत करना चाहिए। इस वर्ष 8 नवम्बर के दिन ही एकादशी सभी के लिए मान्य है।
देवउठनी एकादशी व्रत कथा
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भगवान श्रीकृष्ण की पत्नी सत्यभामा को अपने रूप पर बड़ा गर्व था। वे सोचती थीं कि रूपवती होने के कारण ही श्रीकृष्ण उनसे अधिक स्नेह रखते हैं। एक दिन जब नारदजी उधर गए तो सत्यभामा ने कहा कि आप मुझे आशीर्वाद दीजिए कि अगले जन्म में भी भगवान श्रीकृष्ण ही मुझे पति रूप में प्राप्त हों। नारदजी बोले, ‘नियम यह है कि यदि कोई व्यक्ति अपनी प्रिय वस्तु इस जन्म में दान करे तो वह उसे अगले जन्म में प्राप्त होगी। अतः तुम भी श्रीकृष्ण को दान रूप में मुझे दे दो तो वे अगले जन्मों में जरूर मिलेंगे।’ सत्यभामा ने श्रीकृष्ण को नारदजी को दान रूप में दे दिया। जब नारदजी उन्हें ले जाने लगे तो अन्य रानियों ने उन्हें रोक लिया। इस पर नारदजी बोले, ‘यदि श्रीकृष्ण के बराबर सोना व रत्न दे दो तो हम इन्हें छोड़ देंगे।’
तब तराजू के एक पलड़े में श्रीकृष्ण बैठे तथा दूसरे पलड़े में सभी रानियां अपने−अपने आभूषण चढ़ाने लगीं, पर पलड़ा टस से मस नहीं हुआ। यह देख सत्यभामा ने कहा, यदि मैंने इन्हें दान किया है तो उबार भी लूंगी। यह कह कर उन्होंने अपने सारे आभूषण चढ़ा दिए, पर पलड़ा नहीं हिला। वे बड़ी लज्जित हुईं। सारा समाचार जब रुक्मिणी जी ने सुना तो वे तुलसी पूजन करके उसकी पत्ती ले आईं। उस पत्ती को पलड़े पर रखते ही तुला का वजन बराबर हो गया। नारद तुलसी दल लेकर स्वर्ग को चले गए। रुक्मिणी श्रीकृष्ण की पटरानी थीं। तुलसी के वरदान के कारण ही वे अपनी व अन्य रानियों के सौभाग्य की रक्षा कर सकीं। तब से तुलसी को यह पूज्य पद प्राप्त हो गया कि श्रीकृष्ण उसे सदा अपने मस्तक पर धारण करते हैं। इसी कारण इस एकादशी को तुलसीजी का व्रत व पूजन किया जाता है।
श्री जगदीश्वर जी की आरती
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ॐ जय जगदीश हरे, स्वामी ! जय जगदीश हरे ।
भक्त / दास जनों के संकट, क्षण में दूर करे ॥
ॐ जय जगदीश हरे…
जो ध्यावे फल पावे, दुःख विनसे मन का, स्वामी दुःख विनसे मन का ।
सुख सम्पत्ति घर आवे, कष्ट मिटे तन का ॥
ॐ जय जगदीश हरे…
मात-पिता तुम मेरे, शरण गहूँ मैं किसकी, स्वामी शरण गहूँ मैं किसकी ।
तुम / प्रभु बिन और न दूजा, आस करूँ मैं जिसकी ॥
ॐ जय जगदीश हरे…
तुम पूरण परमात्मा, तुम अन्तर्यामी, स्वामी तुम अन्तर्यामी ।
पारब्रह्म परमेश्वर, तुम सबके स्वामी ॥
ॐ जय जगदीश हरे…
तुम करुणा के सागर, तुम पालन-कर्ता, स्वामी तुम पालन-कर्ता ।
मैं मूरख खल कामी, मैं सेवक तुम स्वामी, कृपा करो भर्ता॥
ॐ जय जगदीश हरे…
तुम हो एक अगोचर, सबके प्राणपति, स्वामी सबके प्राणपति ।
किस विधि मिलूँ दयालु / गोसाईं, तुमको मैं कुमति ॥
ॐ जय जगदीश हरे…
दीनबन्धु दुखहर्ता, तुम ठाकुर मेरे, स्वामी तुम रक्षक मेरे ।
अपने हाथ उठाओ, अपनी शरण लगाओ, द्वार पड़ा मैं तेरे ॥
ॐ जय जगदीश हरे…
विषय-विकार मिटाओ, पाप हरो देवा, स्वमी कष्ट हरो देवा ।
श्रद्धा-भक्ति बढ़ाओ, श्रद्धा-प्रेम बढ़ाओ, सन्तन की सेवा ॥
ॐ जय जगदीश हरे…
तन मन धन सब है तेरा, स्वामी सब कुछ है तेरा ।
तेरा तुझको अर्पण, क्या लागे मेरा ॥
ॐ जय जगदीश हरे…
श्री जगदीशजी की आरती, जो कोई नर गावे, स्वामी जो कोई नर गावे ।
कहत शिवानन्द स्वामी, सुख संपत्ति पावे ॥
ॐ जय जगदीश हरे…
ॐ जय जगदीश हरे, स्वामी ! जय जगदीश हरे ।
भक्त / दास जनों के संकट, क्षण में दूर करे ॥
ॐ जय जगदीश हरे…
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साभार देव उपाध्याय जी