जिसका घर संस्कारों से उजड़ गया वह जीवन में कभी नहीं बस सकता : स्वामी रत्नेश प्रपन्नाचार्य
मंदिर में भगवान सीताराम और महाप्रभु जगन्नाथ के विराजमान होने पर दिखा आनंद उत्सव और हर्ष तो कथा में दिखा वियोग
गंज बासौदा नौलखी मंदिर में भगवान सीताराम और महाप्रभु जगन्नाथ के विराजमान होने पर श्रोतागण आनंद और उत्सव के क्षण में हर्षित होकर नाच रहे थे तो वहीं कथा में राम वन गमन के प्रसंग पर द्रवित होकर श्रोता अपनी आंखों से आंसुओं की झर झर धारा बहा रहे थे। वियोग और हर्ष के यह क्षण नौलखी धाम पर आयोजित हो रहे विराट प्राण प्रतिष्ठा महोत्सव में बुधवार को देखने मिले। रामवन गमन के मार्मिक प्रसंगों पर कथा व्यास ने वाल्मीकि रामायण पर अपनी भावांजलि के जरिए श्रोताओं को द्रवित करने मजबूर कर दिया।
बुधवार को बाल्मीकि रामायण में राम वन गमन के प्रसंग के जरिए उन्होंने श्रोताओं को संस्कार और सत्य का पालन करने प्रेरित किया। कथा के दौरान अयोध्या धाम से पधारे जगद्गुरू रामानुजाचार्य स्वामी रत्नेश प्रपन्नाचार्य जी महाराज ने नौलखी आश्रम पर विराट प्राण प्रतिष्ठा महोत्सव के उपलक्ष्य में चल रही संगीतमय श्रीमद् बाल्मीकि रामायण में धर्म सभा को संबोधित करते हुए कहा कहां की राम संस्कारों की पाठशाला थे इसलिए वह अपने संस्कारों से कभी दूर नहीं हुए। अयोध्या राम के जाने के बाद उजड़ गई थी लेकिन राम के संस्कारों से वह एक बार फिर से बस गई यही संस्कारों श्रेष्ठता है जिस घर में बेटे संस्कारवान होते हैं वह घर कभी नहीं उजड़ता। जिस घर के बेटे संस्कारों से दूर हो जाते हैं वह उजड़ जाता है फिर कभी नहीं बसता। राम संस्कारवान थे इसलिए अयोध्या उजड़ने के बाद राम के संस्कारों की बदौलत फिर से बस गई। रामायण का हर पात्र हमें त्याग करना सिखाता है।
धर्म के मार्ग पर किस तरह चलना चाहिए यह दिखाता है। जो धर्म, वेद,पर नहीं चलेगा उसका अस्तित्व नहीं रहेगा। भगवान राम वेद मार्ग पर चले धर्म मार्ग पर चले इसलिए आज भी हमारे आदर्श हैं। महाराज श्री द्वारा जब अयोध्या से भगवान राम के वन गमन के प्रसंग पर आज हमारे राम अयोध्या छोड़ चले के मार्मिक भजन मंच से गया हजारों की संख्या में मौजूद श्रोता द्रवित हो गए और कथा पंडाल में अपने आंसुओं की धारा नहीं रोक पाए। महाराज श्री ने कहा कि धैर्य और संयम सफलता की कुंजी है। जब मन इन्द्रियों के वशीभूत होता है, तब संयम की लक्ष्मण रेखा लाँघे जाने का खतरा बन जाता है, भावनाएँ अनियंत्रित हो जाती हैं। असंयम से मानसिक संतुलन बिगड़ जाता है, इंसान असंवेदनशील हो जाता है, मर्यादाएँ भंग हो जाती हैं। इन सबके लिए मनुष्य की भोगी वृत्ति जिम्मेदार है। काम, क्रोध, लोभ, ईर्ष्या असंयम के जनक हैं व संयम के परम शत्रु हैं। इसी तरह नकारात्मक आग में घी का काम करती है।